परिवेश और प्रवृत्तियाँ

कहानी का अर्थ परिभाषा विशेषताएँ
यहाँ हिन्दी के विद्वानों का कहानी के सन्दर्भ में विचार जानना आवश्यक है। अतः अब हम भारतीय विद्वानों के कहानी संबधी दृष्टिकोण पर विचार करते हैं। मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार , “ कहानी (गल्प) एक रचना है , जिसमें जीवन के किसी एक अंग या मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र , उसकी शैली तथा कथा - विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। ”
- बाबू श्यामसुन्दर दास का मत है कि , “ आख्यायिका एक निश्चित लक्ष्य या प्रभाव को लेकर नाटकीय आख्यान है।"
- बाबू गुलाबराय का विचार है कि , “ छोटी कहानी एक स्वतः पूर्ण रचना है जिसमें एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली व्यक्ति-केंद्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक , परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्ययाशित ढंग से उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला परिवेश और प्रवृत्तियाँ कौतूहलपूर्ण वर्णन हो। ”
- इलाचन्द्र जोशी के अनुसार "जीवन का चक्र नाना परिस्थितियों के संघर्ष से उल्टा सीधा चलता रहता है। इस सुवृहत् चक्र की किसी विशेष परिस्थिति की स्वभाविक गति को प्रदर्शित करना ही कहानी की विशेषता है।"
- जयशंकर प्रसाद कहानी को सौन्दर्य की झलक का रस 'प्रदान करने वाली मानते हैं।
- रायकृष्णदास कहानी को ‘ किसी न किसी सत्य का उद्घाटन करने वाली तथा मनोरंजन करने वाली विधा कहते हैं।
- ' अज्ञेय ' कहानी को ' जीवन की प्रतिच्छाया ' मानते है तो जैनेन्द्र की कोशिश करने वाली एक भूख ' कहते हैं। कुमार ' निरन्तर समाधान पाने
- ये सभी परिभाषाएँ भले ही कहानी के स्वरूप को पूर्णतः स्पष्ट नहीं करती हैं , परन्तु उसके किसी न किसी पक्ष को जरूर प्रदर्शित करती हैं। हम यह कह सकते हैं कि किसी साहित्य-विधा की कोई ऐसी परिभाषा देना मुश्किल है जो उसके सभी पक्षों का समावेश कर सके या उसके सभी रूपों का प्रतिनिधित्व कर सके। कहानी में साधारण से साधारण बातों का वर्णन हो सकता है , कोई भी साधारण घटना कैसे घटी , को कहानी का रूप दिया जा सकता है परन्तु कहानी अपने में पूर्ण और रोमांचक हो । जाहिर है कहानी मानव जीवन की घटनाओं और अनुभवों पर आधारित होती है जो समय के अनुरूप बदलते हैं ऐसे में कहानी की निश्चित परिभाषा से अधिक उसकी विशेषताओं को जानने का प्रयास करें।
कहानी की विशेषताएँ
उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि कहानी में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं
1. कहानी एक कथात्मक संक्षिप्त गद्य रचना है , अर्थात कहानी आकार में छोटी होती है जिसमें कथातत्व की प्रधानता होती है।
2. कहानी में ' प्रभावान्विति ' होती है अर्थात् कहानी में विषय के एकत्व प्रभावों की एकता का होना भी बहुत आवश्यक है।
3. कहानी ऐसी हो , जिसे बीस मिनट , एक घण्टा या एक बैठक में पढ़ा जा सके। 4. कौतूहल और मनोरंजन कहानी का आवश्यक गुण है।
5. कहानी में जीवन का यर्थाथ होता है , वह यर्थाथ जो कल्पित होते हुए भी सच्चा लगे ।
6. कहानी में जीवन के एक तथ्य का , एक संवेदना अथवा एक स्थिति का प्रभावपूर्ण चित्रण होता है।
7. कहानी में तीव्रता और गति आवश्यक है जिस कारण विद्वानों ने उसे 100 गज की दौड़ कहा है। अर्थात कहानी आरम्भ हो और शीघ्र ही समाप्त भी हो जाए।
8. कहानी में एक मूल भावना का विस्तार आख्यानात्मक शैली में होता है।
9. कहानी में प्रेरणा बिन्दु का विस्तार होता।
10. कहानी की रूपरेखा पूर्णतः स्पष्ट और सन्तुलित होती है।
11. कहानी में मनुष्य के पूर्ण जीवन नहीं बल्कि उसके चरित्र का एक अंग चित्रित होता है , इसमें घटनाएँ व्यक्ति केन्द्रित होती हैं।
12. कहानी अपने आप में पूर्ण होती है।
उक्त विशेषताओं को आप ध्यान से बार-बार पढ़कर कहानी के मूल भाव और रचना प्रक्रिया को समझ पायेंगे। इन सब लक्षणों या विशेषताओं को ध्यान में रखकर हम आसान शब्दों में कह सकते हैं कि-- “ कहानी कथातत्व प्रधान ऐसा खण्ड या प्रबन्धात्मक गद्य रूप है , जिसमें जीवन के किसी एक अंश , एक स्थिति या तथ्य का संवेदना के साथ स्वतः पूर्ण और प्रभावशाली चित्रण किया जाता है। किसी भी कहानी पर विचार करने से पहले उसे पहचानना आवश्यक होता है। आगे के पाठों में हम इस पर और विस्तार से बात करेंगे।
कोयल कमाल के शातिर चालाक व बर्बर परिंदे
एशियन मादा कोयल (फोटो साभार - विकिपीडिया) महान कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य के कथनानुसार जो ज्यादा ही अधिक मीठा बोलता है वो अक्सर भरोसेमन्द नहीं होता। ऐसे लोग प्राय: आलसी, कामचोर, चालाक व धूर्त प्रवृत्ति के होते हैं। वहीं इनकी शारीरिक भाषा एवं आँखों की पुतलियों की हरकत भी अलग सी होती है।
बिना किसी लिंग भेदभाव की ये प्रवृत्तियाँ सिर्फ मनुष्यों में ही हों ये जरूरी नहीं क्योंकि यह हमारे आस-पास के परिवेश में रह रहे कई प्रजाति के परिन्दों में भी मौजूद है। ऐसे ही कोयल प्रजाति के परिन्दे जो दिखने में भले ही शर्मीले व सीधे-सादे स्वभाव के लगते हों लेकिन असल जिन्दगी में ये शातिर, चालाक, धूर्त व बर्बर प्रवृत्ति के होते हैं।
कोयल या कोकिला प्राणी-जगत के कोर्डेटा संघ के एवीज (पक्षी) वर्ग के कुकुलिफोर्मीज गण तथा कुकुलिडी परिवार से सम्बन्धित घने वृक्षों पर छिपकर रहने वाला पक्षी है। भारत में इसकी दो प्रमुख प्रजातियाँ, भारतीय कोयल (कुकूलस माइक्रोटेनस) व एशियन कोयल (यूडाइनेमिस स्कोलोपेसियस) या कुकू पाई जाती है। एशियन कोयल तुलनात्मक आकार में बड़े होते हैं, बाकी दोनों प्रजाति के कोयलों का रंग-रूप लगभग एक जैसा ही होता है। ये परिन्दे भारत समेत पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल, चीन आदि देशों में बहुतायत में पाये जाते हैं।
विश्व में कोयल (कुकू) की लगभग 138 प्रजातियाँ हैं जो अलग-अलग महाद्वीपों में बसर करती हैं। इनमें से 21 प्रजातियाँ ऐसी हैं जो भारत में बसर करती है। ये पक्षी नीड़-परजीवी (ब्रूड-पेरासाइट) होते हैं। नर कोयल मादा की तुलना में ज्यादा खूबसूरत, आकर्षक, फुर्तीले व हट्टे-कट्टे होते हैं तथा इनका रंग भी चमकदार धात्विक काला होता है। इसके नयन सुन्दर व लाल रंग के होते हैं वहीं इनकी बोली भी कमाल की कर्णप्रिय, सुरीली व मधुर होती है। इसके मूल में प्रकृति की सोची समझी रणनीति होती है जिससे ये प्रणय के लिये मादाओं का दिल जीत सके ताकि यह अपनी वंश वृद्धि बढ़ाने के साथ-साथ अपनी प्रजाति के अस्तित्व को मौजूदा माहौल में कायम रख सके।
एशियन नर कोयल (फोटो साभार - विकिपीडिया) मादा कोयल दिखने में थोड़ी कम आकर्षक व तीतर परिन्दों की भाँती धब्बेदार चितकबरी होती है तथा इसकी आवाज भी कर्कस होती है। ये अपने पूरे जीवन में कई नरों के साथ प्रणय सम्बन्ध बनाती और रखती है अर्थात ये बहुपतित्व (पोलिएंड्रस) होती है। मुख्य रूप से ये फलाहारी ही होते हैं लेकिन मौका मिलने पर ये कीटों व लटों को खाने में संकोच नहीं करते हैं। लेकिन इनके बच्चे सर्वहारी होते हैं। कोयल झारखण्ड प्रदेश का राजकीय पक्षी है।
कोयल परिन्दे इतने आलसी, कामचोर, लापरवाह व सुस्त प्रवृति के होते हैं कि ये अंडे देने हेतु अपना नीड़ या घोसला भी नहीं बनाते हैं। बल्कि इसके लिये ये दूसरे प्रजाति परिवेश और प्रवृत्तियाँ के परिन्दों के बनाए घोसलों का उपयोग करते हैं अर्थात इनमें ‘नीड़-परजीविता’ होती है। और-तो-और ये अपने अण्डों को सेने का काम और बच्चों (चूजों) का लालन-पालन भी नहीं करते हैं। इन कामों के लिये इन्होंने एक अनोखी कारगर तरकीब इजाद कर रखी है। इसमें ये काम किसी और प्रजाति के परिन्दों से बड़ी चालाकी व धोखे में रखकर करवातें है। इन कामों को अंजाम देने के लिये नर व मादा कोयल दोनों मिलकर करते हैं।
प्रजनन काल में नर कोयल बार-बार व जोर-जोर से अपनी आवाज निकालकर मादा कोयल को प्रणय के लिये रिझाता-मनाता है और आपसी सहमती होने पर ही इनमें प्रजनन होता है। मई के आस-पास ये उन प्रजाति के परिन्दों की तलाशते हैं जिन्होंने अपना घोसला बना लिया हो और अपने अण्डों को से रहे हों। परन्तु ये उन प्रजाति के परिन्दों को ही निशाना बनाते हैं जिनके अण्डों का रंगरूप व आकार इनके अण्डों से हुबहू मिलते-जुलते हों। इसके लिये एशियन कोयल ज्यादातर कौआ प्रजाति के परिन्दों को अपना निशाना बनाती हैं।
जब मादा कौआ अंडे से रही होती है तब नर कोयल इस पर बार-बार हमला कर व डरा धमका के इसे घोंसला छोड़ने को विवश परिवेश और प्रवृत्तियाँ कर देता है। तब ही घोसले के आस-पास मँडराती या इन्तजार में छिपी बैठी मादा कोयल इस अवसर का फायदा उठा कर चालाकी से अपने अंडे कौआ के घोसले में रख देती है। यह इतनी शातिर चालाक व बेरहम होती है कि कौओं को इसकी भनक न लगे इस हेतु यह घोंसले से इनके उतने ही अण्डों को खा जाती या दूर फेंक आती है जितने इसने अपने अण्डे दे रखे हैं। ताकि कौओं को अण्डों की गणित हिसाब बराबर लगे। अधिकांश में यह एक ही घोंसले में एक ही अण्डा देती हैं परन्तु दो से तीन अण्डे भी देखे गए हैं।
मादा कोयल एक ऋतु में सोलह से छब्बीस तक अण्डे दे सकती है। जरुरत पड़ने पर ये कौओं के अन्य घोसलों का उपयोग करती है। इसके बाद मादा कोयल इस घोसले की ओर कभी रुख नहीं करती। अनजान कौए न केवल कोयल के इन अण्डों को सेते हैं बल्कि इनसे निकले बच्चों (चूजों) का बखूबी पालन-पोषण भी करते हैं। कौओं के अलावा मैगपाई चिड़िया के नीड़ में भी कोयल चोरी छिपे या जबरदस्ती से अंडे दे देती है।
विशेष बात कि कौए के अण्डों से पहले कोयल का बच्चा निकल आता है और तेजी से विकसित हो जाता है। ये पैदाइशी परजीवी व बर्बर हत्यारा प्रवृत्ति के होते हैं। यह घोसले में कौए के अण्डों व चूजों की उपस्थिति बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता बल्कि यह इन्हें अपने पीछे के पैरों से एक-एक को ऊपर की ओर धकेल कर बेरहमी से घोसले से बाहर फेंक देता है। भोजन न मिलने से भी कौए के बच्चे भूख से मर जाते हैं क्योंकि इनका भोजन कोयल का बच्चा अक्सर छीन के खा जाता है। भरपूर पौष्टिक आहार मिलने से ये तेजी से बड़ा हो जाता है। अपनी असलियत का पता न चले इसके पूर्व ही यह घोसले को छोड़ देता है। कौओं को इसकी असलियत की भनक तब लगती जब यह बोलने लगता है।
प्रो. शांतिलाल चौबीसा जीव-जगत में पक्षी वर्ग के इंडिकेटोरिडि, प्लीसिडि, एनाटिडी, कुकुलिड़ी परिवार की लगभग अस्सी प्रजातियाँ ऐसी हैं जिनके परिन्दे नीड़-परजीवी होते हैं। इनमें से चालीस प्रजातियाँ अकेली कोयल की हैं। कोयल पक्षियों में नीड़-परजीविता तथा इनमें व इनके बच्चों में चालाकी, धुर्तता व बर्बरता जैसी सहज प्रवृत्तियाँ जैव-विकास के दौरान कैसे और क्यों विकसित हुई इसकी सटीक वैज्ञानिक जानकारी अभी भी अज्ञात है। यह इनके संरक्षण का परिवेश और प्रवृत्तियाँ एक जरिया भी हो सकता है।
चूँकि ये प्रवृत्तियाँ इनमें पैदाइशी हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। इसलिये ये अनुवांशिकीय हो सकती है। परन्तु अन्य जीवों में भी ये प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं जो आयु व जरुरत के साथ स्वत: ही जागृत हो जाती हैं। आलसीपन व कामचोरी से ये वृत्तियाँ इन परिन्दों में विकसित हुई हो इसको भी अनदेखा नहीं कर सकते।
बहरहाल, इसे जानने के लिये गहन शोध अध्ययनों की जरुरत है। जो भी हो, पारिस्थितिकी तंत्र में इन परिन्दों का काफी महत्त्व है। क्योंकि ये पोषक परिन्दों व पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले कई खतरनाक कीटों व लटों की आबादी को नियंत्रित करते हैं। इसके अतिरिक्त ये कई प्रजाति के पेड़-पौधों के बीजों को फैलाने व इनके संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बावजूद, लगातार अंधाधुंध वनों की कटाई से इन परिन्दों की आबादी पर संकट के बादल अब गहराने लगे हैं जो पक्षीविदों के लिये ज्यादा चिन्ताजनक है।
प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणी शास्त्री, पर्यावरणविद् एवं लेखक, उदयपुर-राजस्थान
कोयल कमाल के शातिर चालाक व बर्बर परिंदे
एशियन मादा कोयल (फोटो साभार - विकिपीडिया) महान कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य के कथनानुसार जो ज्यादा ही अधिक मीठा बोलता है वो अक्सर भरोसेमन्द नहीं होता। ऐसे लोग प्राय: आलसी, कामचोर, चालाक व धूर्त प्रवृत्ति के होते हैं। वहीं इनकी शारीरिक भाषा एवं आँखों की पुतलियों की हरकत भी अलग सी होती है।
बिना किसी लिंग भेदभाव की ये प्रवृत्तियाँ सिर्फ मनुष्यों में ही हों ये जरूरी नहीं क्योंकि यह हमारे आस-पास के परिवेश में रह रहे कई प्रजाति के परिन्दों में भी मौजूद है। ऐसे ही कोयल प्रजाति के परिन्दे जो दिखने में भले ही शर्मीले व सीधे-सादे स्वभाव के लगते हों लेकिन असल जिन्दगी में ये शातिर, चालाक, धूर्त व बर्बर प्रवृत्ति के होते हैं।
कोयल या कोकिला प्राणी-जगत के कोर्डेटा संघ के एवीज (पक्षी) वर्ग के कुकुलिफोर्मीज गण तथा कुकुलिडी परिवार से सम्बन्धित घने वृक्षों पर छिपकर रहने वाला पक्षी है। भारत में इसकी दो प्रमुख प्रजातियाँ, भारतीय कोयल (कुकूलस माइक्रोटेनस) व एशियन कोयल (यूडाइनेमिस स्कोलोपेसियस) या कुकू पाई जाती है। एशियन कोयल तुलनात्मक आकार में बड़े होते हैं, बाकी दोनों प्रजाति के कोयलों का रंग-रूप लगभग एक जैसा ही होता है। ये परिन्दे भारत समेत पाकिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, बांग्लादेश, नेपाल, चीन आदि देशों में बहुतायत में पाये जाते हैं।
विश्व में कोयल (कुकू) की लगभग 138 प्रजातियाँ हैं जो अलग-अलग महाद्वीपों में बसर करती हैं। इनमें से 21 प्रजातियाँ ऐसी हैं जो भारत में बसर करती है। ये पक्षी नीड़-परजीवी (ब्रूड-पेरासाइट) होते हैं। नर कोयल मादा की तुलना में ज्यादा खूबसूरत, आकर्षक, फुर्तीले व हट्टे-कट्टे होते हैं तथा इनका रंग भी चमकदार धात्विक काला होता है। इसके नयन सुन्दर व लाल रंग के होते हैं वहीं इनकी बोली भी कमाल की कर्णप्रिय, सुरीली व मधुर होती है। इसके मूल में प्रकृति की सोची समझी रणनीति होती है जिससे ये प्रणय के लिये मादाओं का दिल जीत सके ताकि यह अपनी वंश वृद्धि बढ़ाने के साथ-साथ अपनी प्रजाति के अस्तित्व को मौजूदा माहौल में कायम रख सके।
एशियन नर कोयल (फोटो साभार - विकिपीडिया) मादा कोयल दिखने में थोड़ी कम आकर्षक व तीतर परिन्दों की भाँती धब्बेदार चितकबरी होती है तथा इसकी आवाज भी कर्कस होती है। ये अपने पूरे जीवन में कई नरों के साथ प्रणय सम्बन्ध बनाती और रखती है अर्थात ये बहुपतित्व (पोलिएंड्रस) होती है। मुख्य रूप से ये फलाहारी ही होते हैं लेकिन मौका मिलने पर ये कीटों व लटों को खाने में संकोच नहीं करते हैं। लेकिन इनके बच्चे सर्वहारी होते हैं। कोयल झारखण्ड प्रदेश का राजकीय पक्षी है।
कोयल परिन्दे इतने आलसी, कामचोर, लापरवाह व सुस्त प्रवृति के होते हैं कि ये अंडे देने हेतु अपना नीड़ या घोसला भी नहीं बनाते हैं। बल्कि इसके लिये ये दूसरे प्रजाति के परिन्दों के बनाए घोसलों का उपयोग करते हैं अर्थात इनमें ‘नीड़-परजीविता’ होती है। और-तो-और ये अपने अण्डों को सेने का काम और बच्चों (चूजों) का लालन-पालन भी नहीं करते हैं। इन कामों के लिये इन्होंने एक अनोखी कारगर तरकीब इजाद कर रखी है। इसमें ये काम किसी और प्रजाति के परिन्दों से बड़ी चालाकी व धोखे में रखकर करवातें है। इन कामों को अंजाम देने के लिये नर व मादा कोयल दोनों मिलकर करते हैं।
प्रजनन काल में नर कोयल बार-बार व जोर-जोर से अपनी आवाज निकालकर मादा कोयल को प्रणय के लिये रिझाता-मनाता है और आपसी सहमती होने पर ही इनमें प्रजनन होता है। मई के आस-पास ये उन प्रजाति के परिन्दों की तलाशते हैं जिन्होंने अपना घोसला बना लिया हो और अपने अण्डों को से रहे हों। परन्तु ये उन प्रजाति के परिन्दों को ही निशाना बनाते हैं जिनके अण्डों का रंगरूप व आकार इनके अण्डों से हुबहू मिलते-जुलते हों। इसके लिये एशियन कोयल ज्यादातर कौआ प्रजाति के परिन्दों को अपना निशाना बनाती हैं।
जब मादा कौआ अंडे से रही होती है तब नर कोयल इस पर बार-बार हमला कर व डरा धमका के इसे घोंसला छोड़ने को विवश कर देता है। तब ही घोसले के आस-पास मँडराती या इन्तजार में छिपी बैठी मादा कोयल इस अवसर का फायदा उठा कर चालाकी से अपने अंडे कौआ के घोसले में रख देती है। यह इतनी शातिर चालाक व बेरहम होती है कि कौओं को इसकी भनक न लगे इस हेतु यह घोंसले से इनके उतने ही अण्डों को खा जाती या दूर फेंक आती है जितने इसने अपने अण्डे दे रखे हैं। ताकि कौओं को अण्डों की गणित हिसाब बराबर लगे। अधिकांश में यह एक ही घोंसले में एक ही अण्डा देती हैं परन्तु दो से तीन अण्डे भी देखे गए हैं।
मादा कोयल एक ऋतु में सोलह से छब्बीस तक अण्डे दे सकती है। जरुरत पड़ने पर ये कौओं के अन्य घोसलों का उपयोग करती है। इसके बाद मादा कोयल इस घोसले की ओर कभी रुख नहीं करती। अनजान कौए न केवल कोयल के इन अण्डों को सेते हैं बल्कि इनसे निकले बच्चों (चूजों) का बखूबी पालन-पोषण भी करते हैं। कौओं के अलावा मैगपाई चिड़िया के नीड़ में भी कोयल चोरी छिपे या जबरदस्ती से अंडे दे देती है।
विशेष बात कि कौए के अण्डों से पहले कोयल का बच्चा निकल आता है और तेजी से विकसित हो जाता है। ये पैदाइशी परजीवी व बर्बर हत्यारा प्रवृत्ति के होते हैं। यह घोसले में कौए के अण्डों व चूजों की उपस्थिति बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करता बल्कि यह इन्हें अपने पीछे के पैरों से एक-एक को ऊपर की ओर धकेल कर बेरहमी से घोसले से बाहर फेंक देता है। भोजन न मिलने से भी कौए के बच्चे भूख से मर जाते हैं क्योंकि इनका भोजन कोयल का बच्चा अक्सर छीन के खा जाता है। भरपूर पौष्टिक आहार मिलने से ये तेजी से बड़ा हो जाता है। अपनी असलियत का पता न चले इसके पूर्व ही यह घोसले को छोड़ देता है। कौओं को इसकी असलियत की भनक तब लगती जब यह बोलने लगता है।
प्रो. शांतिलाल चौबीसा जीव-जगत में पक्षी वर्ग के इंडिकेटोरिडि, प्लीसिडि, एनाटिडी, कुकुलिड़ी परिवार की लगभग अस्सी प्रजातियाँ ऐसी हैं जिनके परिन्दे नीड़-परजीवी होते हैं। इनमें से चालीस प्रजातियाँ अकेली कोयल की हैं। कोयल पक्षियों में नीड़-परजीविता तथा इनमें व इनके बच्चों में चालाकी, धुर्तता व बर्बरता जैसी सहज प्रवृत्तियाँ जैव-विकास के दौरान कैसे और क्यों विकसित हुई इसकी सटीक वैज्ञानिक जानकारी अभी भी अज्ञात है। यह इनके संरक्षण का एक जरिया भी हो सकता है।
चूँकि ये प्रवृत्तियाँ इनमें पैदाइशी हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। इसलिये ये अनुवांशिकीय हो सकती है। परन्तु अन्य जीवों में भी ये प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं जो आयु व जरुरत के साथ स्वत: ही जागृत हो जाती हैं। आलसीपन व कामचोरी से ये वृत्तियाँ इन परिन्दों में विकसित हुई हो इसको भी अनदेखा नहीं कर सकते।
बहरहाल, इसे जानने के लिये गहन शोध अध्ययनों की जरुरत है। जो भी हो, पारिस्थितिकी तंत्र में इन परिन्दों का काफी महत्त्व है। क्योंकि ये पोषक परिन्दों व पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाने वाले कई खतरनाक कीटों व लटों की आबादी को नियंत्रित करते हैं। इसके अतिरिक्त ये कई प्रजाति के पेड़-पौधों के बीजों को फैलाने व इनके संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बावजूद, लगातार अंधाधुंध वनों की कटाई से इन परिन्दों की आबादी पर संकट के बादल अब गहराने लगे हैं जो पक्षीविदों के लिये ज्यादा चिन्ताजनक है।
प्रो. शांतिलाल चौबीसा, प्राणी शास्त्री, पर्यावरणविद् एवं लेखक, उदयपुर-राजस्थान
हिन्दी साहित्य में प्रयोगवाद पर निबंध
'परिवेश और प्रवृत्तियाँ प्रयोग' शब्द का अर्थ है, 'नई दिशा में कार्य करने का प्रयत्न'। जीवन के सभी क्षेत्रों में निरन्तर प्रयोग चलते रहते हैं। काव्य जगत् में भी प्रयोग होते ही रहते हैं। सभी जागरूक कवियों को रचनाओं में रूढ़ियों को तोड़कर आगे बढ़ने की प्रवृत्ति किसी न किसी रूप में अवश्य दिखाई देती है, किन्तु सन् 1943 के पश्चात् हिन्दी कविता में नवीनता की प्रवृत्ति ने इतना जोर पकड़ा कि इस युग की कविता धारा का नाम ही 'प्रयोगवाद' पड़ गया।
प्रयोगवाद के स्वरूप पर आलोचकों की धारणाएँ
प्रयोगवाद के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इस धारा के कवियों एवं कुछ प्रमुख आलोचकों की धारणाएँ इस प्रकार हैं–
सच्चिदानन्द हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय'– 'प्रयोगशील कविता में नए सत्यों का, नई यथार्थताओं का जीवित बोध भी है, उन सत्यों के साथ नए रागात्मक सम्बन्ध भी और उनको पाठक या सहृदय तक पहुँचाने यानि साधारणीकरण की शक्ति भी है।'
डॉ. धर्मवीर 'भारती'– 'प्रयोगवादी कविता में भावना है, किन्तु हर भावना के आगे एक प्रश्न चिह्न लगा है। इसी प्रश्न चिह् को आप बौद्धिकता कह सकते हैं। सांस्कृतिक ढाँचा चरमरा उठा है और यह प्रश्न चिह्न उसी की ध्वनि मात्र है।'
प्रयोगवाद की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
प्रयोगवादी कविता में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं–
(1) घोर अहंनिष्ठ वैयक्तिकता– प्रयोगवादी कवि समाज चित्रण की अपेक्षा वैयक्तिक कुरूपता का प्रकाशन करता है। मन की नग्न एवं अश्लील मनोवृत्तियों का चित्रण करता है। अपनी असामाजिक एवं अहंवादी प्रकृति के अनुरूप मानव जगत् के लघु और छुद्र प्राणियों को काव्य में स्थान देता है। भावुकता के स्थान पर बौद्धिकता की प्रतिष्ठा करता है–
चलो उठें अब
अब तक हम थे बन्धु
सैर को आए–
और रहे बैठे तो,/ लोग कहेंगे
धुंधले में दुबके दो प्रेमी बैठे हैं
वह हम हों भी / तो यह हरी घास ही जाने। –अज्ञेय
(2) अश्लील प्रेम प्रदर्शन– प्रयोगवादी कवि मांसल प्रेम एवं दमित वासना की अभिव्यवित में रस लेता है। वह अपनी ईमानदारी यौन वर्जनाओं के चित्रण में प्रदर्शित करता है–
चली आईं बेला सुहागत पायल पहन
बाण बिद्ध हरिणी सी
बाहों में सिमट जाने की
उलझने की; लिपट जाने की
मोती की लड़ी समान।
(3) विद्रोह का स्वर– प्रयोगवादी कवि प्राचीन रूढ़ियों का परित्याग करता है और आततायी सामाजिक परिवेश को चुनौती देता है–
ठहर गहर आवतायी? जरा सुन ले।
येरे क्रुद्ध वीर्य की पुकार आज सुन ले ॥ –अज्ञेय
(4) सामाजिक और राजनीतिक विद्रूपता के प्रति व्यंग्य– प्रयोगवादी कवि वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक कुरूपता के प्रति सशक्त व्यंग्य करना अपना धर्म समझता है–
मुंसिफ बना दामाद
भतीजे ने पाया प्रमोशन।
बेटे ने पकड़ा
दामोदर वेली कारपोरेशन। –नागार्जुन
वैचित्र्य परिवेश और प्रवृत्तियाँ प्रदर्शन, प्रकृति चित्रण
(5) वैचित्र्य प्रदर्शन– कहीं कहीं वर्णन और वर्ण्य वैचित्र्य प्रदर्शन भी प्रयोगवादी कवियों ने किए हैं। वस्तुतः यह प्रवृत्ति बड़ी हास्यास्पद है। जैसे–
अगर कहीं मैं तोता होता!
को क्या होता? / तो क्या होता?
तो परिवेश और प्रवृत्तियाँ परिवेश और प्रवृत्तियाँ होता /तो तो तो ता ता ता ता
होता होता होता होता।
(6) प्रकृति चित्रण– नई कविता में प्रकृति चित्रण शुद्ध कला के आग्रह से पूर्ण है, जिसमें साम्य की अपेक्षा वैषम्य की प्रचुरता है। हाँ, प्रकृति चित्रण में बिम्बों का सफलतापूर्वक अंकन है।
नहीं
सांझ
एक असभ्य आदमी की
जम्हाई है। –पंत
(6) व्यापक सौन्दर्य बोध– अति उपेक्षित वस्तु या स्थान का सौन्दर्यपूर्ण वर्णन करना प्रयोगवादी कवि की कला का गुण है–
हवा चली
छिपकली की टाँग
मकड़ी के जाले में फँसी रही, फंसी रही।
(7) शैली की नवीनता– प्रयोगवादी कवि कविता के परम्परागत कलापक्ष का भी विरोधी है। यही कारण है कि छायावाद की लाक्षणिक शब्दावली के स्थान पर उसने साधारण लोक प्रचलित शब्दों परिवेश और प्रवृत्तियाँ परिवेश और प्रवृत्तियाँ का प्रयोग किया है एवं प्रचलित उपमारनों के स्थान पर सर्वथा नए एवं आधुनिक जीवन में प्रयुक्त होने वाले तत्त्वों को उपमान के रूप में प्रयुक्त किया है।
आपरेशन धियेटर सी
जो हर काम करते हुए चुप है।
× × × ×
प्यार का नाम लेते ही
बिजली के स्टोव सी
जो एकदम सुर्ख हो जाती है।
इन प्रवृत्तियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि प्रयोगवादी कविता में गुण और दोष, दोनों ही विद्यमान हैं। यह धारा आज हिन्दी में उत्तरोत्तर विकसित होती जा रही है।
उपसंहार
प्रयोगवाद का जन्म सन् 1943 में स्वीकार किया जाता है। इस वर्ष श्री 'अज्ञेय' के द्वारा सम्पादित प्रयोगवादी कविताओं के सर्वप्रथम संग्रह 'तार सप्तक' का प्रकाशन हुआ था। इस संग्रह में सर्वश्री अज्ञेय, गजानन माधव 'मुक्तिबोध', नेमिचन्द्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर और रामविलास शर्मा की कविताएँ ली गई थीं।
इसके बाद सन् 1951 में 'दूसरा सप्तक' प्रकाशित हुआ | उसमें सर्वश्री भवानीशंकर मिश्र, शकुन्तला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय तथा धर्मवीर 'भारती' की कविताएं संगृहीत हैं। इस समय तक प्रयोगवादी कविता का स्वरूप बहुत कुछ स्पष्ट हो गया था। अब 'तीसरा सप्तक' और 'चौथा सप्तक' भी प्रकाशित हो चुका है।